अादरणीय श्री मधुकर उपाध्याय के श्रीवचन
सूरज रोज उगता है। तय िदशा से। िनयत समय पर। सबके िलए। अपनी अोर से वह सबकी खाितर एक नया िदन लेकर अाता है। सूरज की चमक में कमी नहीं होती। भेदभाव नहीं होता। वह अाता है तो सब साफ-साफ िदखने लगता है। कुतुब मीनार से लेकर संसद अौर कारखानों से दफ्तर तक। ऊंची इमारतों अौर झुिग्गयों को उसकी चमक में बराबर का िहस्सा िमलता है। यही तो सूरज का काम है।
यही काम अखबार की भी है। सब साफ िदखा देना। बताना िक जो साफ नहीं है। वह साफ क्यों नहीं है। अौर नहीं है तो कैसे होगा। अखबार रोज सुबह उगते हैं लेिकन अब उनका उगना घटना नहीं होता। सूरज की तरह तो िबल्कुल नहीं। कुछ गायब लगता है, जैसे चमक-दमक में खो गया है। असली दुिनया की तस्वीर से कतई अलग। अाज का सूरज कुछ नए पन्ने जोड़कर उगा है। नए अखबार की शक्ल में। उम्मीद के साथ। सबको साथ लेकर। तबके, धमॆ, अायवगॆ अौर कौमी रुझानों से बेपरवाह। सबको समेटता। सब उजागर करता। यहीं मंशा है अौर यही कोिशश। कुल िमलाकर यही अाज समाज है।
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