भूपेन्द्र िसंह
२० सालों से दिल्ली को देख रहा हूँ। काफी कुछ बदल गया लेिकन नहीं बदली तो वो है यमुना। उस समय भी काली ओर गन्दी थी। आज भी वैसी ही दिखाती है। जब यमुना पुल नहीं रहा होगा तो लोगों को यमुना दिखती होगी। आज नहीं दिखती। क्या करे बडे-बडे पुल जो बन गए हैं। इन पुलों के ऊपर से लोग गाडियों मैं बैठकर फर्राटे से निकल जाते हैं। किसी के पास नीचे देखने का समय नहीं है। क्या करे समयकीकमी है। यमुना अपनी हालत पर आंसू बहा रही हैं लेकिन ना ही कोई देखने वाला है ओर ना ही कोई सुनने वाला। बचपन मैं पिताजी के साथ साइकिल पर बैठकर जबप्रगति मैदान जाते थे तोयमुना पुल से गुजरना होता था। यमुना के आते ही पिताजी कहते थे सिर झुकाकर नमस्कार करो यह देवी है। उस समय श्रद्धा से सिर झुक जाता था। अाज शरमसे सिर झुक जाता है। विकास कि इस अंधी रफ्तार मैं आख़िर कहा ले आये हम यमुना को। इन २० सालों मैं हमारा कूड़ा फेकने का अंदाज भी बदला है। पहले पुल के किनारे रेल्लिंग़ हुअा करती थी। लोग अाराम से कूड़ा फेंक देते थे। लेिकन अाज हालात अलग हैं। पुल के िकनारे रैिलंग लग गई हैं। लोग अब अाराम से गािड़यों से उतरते हैं। इसके बाद कोई एेसी जगह ढूंढते हैं। जहां कोई जाली टूटी हो अौर वो अासानी से कूड़ा फेंक दें। अगर कोई टूटी जाली नहीं िमलती हैं। तो जोर लगाकर जाली के उपर से कूड़ा फेंकते हैं। िकतनी अजीब बात हैं, यदि इसी ताकत का हमने सदुपयोग िकया होता। तो अाज हमारे पास भाला फेंक प्रतियोिगता के कई मैडल होते। यमुना की सफाई को लेकर सरकार अब तक १००० करोड़ से अधिक रुपये खचॆ कर चुकी है। लेिकन कोई फायदा नहीं देखने को िमला है।
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