प्रेम चन्द
दिल्ली के बहुत करीब से बहने वाली यमुना नदी की हालत काफी दयनीय है। तरस आता है इसे देख कर। ऐसा लगता है जैसे ऊंची ऊंची बिल्डिंग के बीच से अपने लिए गलियारा तलाश रही हो। मानो दिल्ली में यमुना का स्वरूप लगभग ख़त्म हो चुका हो। बदहाल यमुना नाले जैसी हो गई है। पास से गुजरिये तो बदबू आती है। देश कि राजधानी से गुजरने का खामियाजा है ये। प्राचीन समृधी देख चुकी यमुना अब विकास को अपने आख़िरी दिनों में निहार रही है। देश कि सबसे प्रदूषित नदियों में शुमार हो चुकी यमुना हमारी आकाँक्षाओं का परिणाम भुगत रही है। आषाढ़ में भी पानी को तरस रही है। हम उसके किनारे पर खडे हैं। उसे मरते हुए देख रहे हैं। दिल्ली में खेल होंगे। दुनिया से लोग आएंगे। पर क्या कोई यमुना के दर्द को महसूस कर सकेगा। मेट्रो से हम अपना जीवन आसान बना लेंगे। फिर भी क्या हम यमुना को उसकी समृधी लौटा सकेंगे। देश कि राजधानी दिल्ली का संतुलन बिगड़ रहा है। हमारा भी। पानी के लिए दिल्ली दूसरे राज्यों पर आश्रित है। फिर भी वह चेत नहीं रही है। अपना घर उजाड़ कर दूसरो से भीख माँग रहे हैं। यही हमारा विकाश है। आज हमने कभी सबसे पबित्र नदी रही यमुना को सबसे गन्दी नदियों में शुमार कर दिया है। इसी विकाश पर हम इतरा रहे हैं। इस अंधी दौड़ में हम सभी शामिल हैं। और जिम्मेदार भी।
2 comments:
यह पृथ्वी हमें अपने पूर्वजों से नहीं मिली है पर इसे हमने अपने बच्चों से उधार ली है। हमें उनके लिये सम्भाल कर रखना है। यह कम ही लोग महसूस कर पाते हैं।
अच्छा सवाल उठाया है आपने। हम अपनी गंगा को गंगा जी कहते हैं, माँ मानते है पूजा करते हैं, सभी शुभ कार्य नदियों से जुडा है, फिर भी हालत ये है की ज़्यादातर नदियाँ मर रही हैं। और इस दर्द की कोई दवा नही नज़र आता.
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